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Indian Matchmaking Season 2 पहले सीज़न में फैलाई गंध को समेट पाएगा?

इंडियन मैचमेकिंग क्यों एक कूड़ा शो है!

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विदेशों में बसे भारतीयों को भी एक खास नज़र से दिखाया गया है.

 

इंडियन मैचमेकिंग (Indian Matchmaking) के दूसरे सीजन का शूट पूरा हो चुका है. इसको नेटफ्लिक्स पर 10 अगस्त से देखा जा सकेगा. जब 2020 में इसका पहला सीजन आया था तब खूब बवाल कटा था. जिन्होंने पहला सीजन नहीं देखा, वो पूछ सकते हैं क्यों? ऐसा क्या था उसमें? उनके लिए थोड़ा सा बैकग्राउंड बता देती हूं. सीमा तपारिया नाम की एक मैचमेकर है. वो भारत और अमेरिका में लोगों के लिए रिश्ते ढूंढने का काम करती हैं. आसान भाषा में कहूं तो वो रिश्ते वाली आंटी है. फर्क ये है कि हमारे यहां रिश्तेदार भलमनसाहत में या चैरिटी की तरह किया जाता है. जबकि, सीमा आंटी इस काम के लिए ख़ूब सारे पैसे लेती हैं. सीरीज़ की सोशल मीडिया पर काफी खिंचाई हुई थी. लोगों ने इसे मिसोजिनिस्ट कहा. यानी महिलाविरोधी. ये भी कहा कि इसमें जो भी चीज़ें दिखाई गई हैं, वो बेहद पिछड़ी हुई सोच की हैं. इंडियन मैचमेकिंग के नाम पर भारत की जनसंख्या के एक बेहद छोटे हिस्से को फोकस किया गया था. इसमें और भी ढेर सारी दिक्कतें थी. फिर भी वो एमी के लिए नॉमिनेट हुई. अब इसका दूसरा सीजन भी आ रहा है. तो हम आज इसी पर बात करेंगे कि क्यों इंडियन मैचमेकिंग एक कूड़ा शो है, क्यों एमी के लिए इसका नॉमिनेट होना प्रॉब्लेमैटिक था और क्या ऐसा बच गया कि इसका दूसरा सीजन लाने की ज़रूरत पड़ी!

सीरीज़ की पहली आलोचना इस बात को लेकर थी कि ये भारत के लोगों के लिए बनाई ही नहीं गई थी. ये उन श्वेत अमेरिकी लोगों के लिए बनाई गई, जो ये जानना चाहते हैं कि इन ‘ब्राउन कम्यूनिटीज’ में चलता क्या है. कैसे होता है सब. अरेंज मैरिज किस चिड़िया का नाम है? भारत में अरेंज मैरिज के नाम पर चलता क्या है?

इस सीरीज को प्रोड्यूस किया है ईलाई हौल्ज़मैन, स्मृति मूंदड़ा, और एरोन सैडमैन ने. इनमें से स्मृति इंडियन-अमेरिकन हैं. बाकी दोनों अमेरिकी हैं. पहले सीजन में आठ एपिसोड्स हैं जो अलग-अलग भारतीय और इंडियन-अमेरिकन लोगों के जीवन को दिखाते हैं, जो अपने लिए पार्टनर ढूंढ रहे हैं. ये सीरीज़ भारत और अमेरिका में शूट हुई है. इसकी नैरेटर हैं सीमा तपारिया, जो अपने क्लाइंट्स के लिए अमेरिका भी जाती हैं. तो उनकी जर्नी भी दिखाई गई है. बेसिकली ये एक रिएलिटी सीरीज़ है. मतलब इसमें दिखाए गए करैक्टर असली है. सीमा आंटी असली हैं. मतलब वाकई में उनका पेशा है मैचमेकिंग. लोगों ने जो बातें कही है वो भी रियल कन्वर्सेशन है. मतलब बातें और डायलॉग स्क्रिप्टेड नहीं है. हालांकि कुछ लोगों ने बाद में आरोप लगाए कि उनके बयान को एडिट किया गया और गलत कॉन्टेक्स्ट के साथ यूज़ किया गया.

Indian Matchmaking में क्या दिक्कत है?

पूरे शो में अपर क्लास, अमीर और प्रिविलेज्ड लोग सीमा आंटी के क्लाइंट्स हैं, जो अपने लिए पार्टनर्स की खोज में है. वो अपनी डिमांड सीमा आंटी के सामने रखते हैं. डिमांड अपनी पार्टनर से एक्सपेक्टेशन्स की. इसमें बहुत सारी प्रोब्लेमैटिक चीजें भी कही जाती हैं. मसलन - लड़कों का गोरी, लंबी, एक तय फिगर और एक तय हाइट की लड़की की डिमांड करना. लड़की का अमीर, कमाऊ, अपने मां-बाप और रिश्तेदारों से दूर रहने वाले लड़के की डिमांड करना. इसमें जाति, धर्म, रंग, क्लास, ये सब फैक्टर्स के प्रति झुकाव भी दिखाया गया है, जो एक्चुअल में इंडिया की रियलिटी भी है. अब इसमें प्रॉब्लम ये है कि दर्शक इस सीरीज़ को सीमा आंटी के थ्रू देख रहे हैं. सीमा आंटी कहीं पर भी प्रोब्लेमैटिक बातों को कॉल आउट करती नहीं दिखतीं. वो कहतीं है कि वो सिर्फ़ और सिर्फ़ क्लाइंट की डिमांड पूरी करने के लिए बैठीं है. कोई कह सकता है उनका काम नुक्स निकालना नहीं है. वो मैचमेकिंग कराने बैठी है, क्लाइंट्स को ज्ञान देने नहीं. बात ठीक भी है. क्लाइंट्स को ना बोलें लेकिन शो के बीच जहां मोनोलॉग आते हैं वहां भी वो इसे पॉइंट आउट नहीं करतीं. आपके और मेरे जैसे आम भारतीयों को तो प्रॉब्लेमैटिक पार्ट समझ आता है लेकिन ये नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई सीरीज़ है. इसे पूरी दुनिया के दर्शकों के लिए बनाया गया था. ये कनाडा में ट्रेंड भी हुई थी. भारत से बाहर के जो लोग पहली बार भारत में अरेंज मैरिज के कॉन्सेप्ट को समझने के लिहाज़ से सीरीज़ देखेंगे, उन्हें यही लगेगा कि पूरा भारत ऐसा ही है. भारत में शादी ऐसे ही होती है. लेकिन यही इकलौता सच नहीं है. असलियत इससे काफी अलग है. जटिल है. सीमा आंटी बार-बार लड़कियों से एडजस्ट करने की सलाह देतीं है. यहां एडजस्ट का तात्पर्य कोम्प्रोमाईज़ से होता है. ये बात वो लड़कों से कहते नहीं दिखतीं. उनकी हर डिमांड को सिर आंखों पर बिठाया जाता है.

इस सीरीज़ के साथ एक बड़ी प्रॉब्लम परसेप्शन की भी है. जातिवाद, नस्लभेद, रंगभेद, बॉडीशेमिंग जैसे इश्यू को ये सीमा आंटी के एक्सेप्टेन्स के नाम पर एंडोरस करती  है. विदेश में रहने वालों का 'भारतीयता' (Indianness) के प्रति झुकाव दिखाने के लिए सिर्फ उनकी प्रॉब्लेमैटिक चॉइसेस को ही हाईलाइट किया गया.

भारत सांस्कृतिक तौर पर बहुत विविध है. यहां कश्मीर के हिंदु और कन्याकुमारी के हिंदु में ही बहुत फर्क है. यहां मुस्लिम, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई जैसे कितने ही धर्म है. लेकिन पहले सीजन में इंडियन के नाम पर सिर्फ अपर क्लास, प्रिविलेज लोगों पर ही फोकस किया गया.

इस सीरीज की एक बहुत बड़ी दिक्कत ये महसूस होती है कि विदेशों में बसे भारतीयों को भी एक खास नज़र से दिखाया गया है. सीरीज के दो प्रोड्यूसर्स अमेरिकन हैं. उनकी नज़र से कई चीज़ें ऐसी दिखती हैं सीरीज में, जो बेहद वियर्ड हैं. जैसे भारतीय डायस्पोरा (लोग जो विदेश में रहते हैं). उनके दिखाए हुए एग्जाम्पल ऐसे हैं, जो काफी पिछड़े हुए स्टीरियोटाइप्स फॉलो करते हैं.

भारतीयों का मज़ाक बनाता है 'इंडियन मैचमेकिंग'

सीरीज मुख्य तौर पर मुंबई और दिल्ली में फोकस्ड है. जब भी भारत के सीन आते हैं सीरीज में, सितार बजना शुरू हो जाता है. शॉट्स ऐसे लिए जाते हैं जो ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ की याद दिला देते हैं. कई सीन्स में एक समाज के तौर पर भारतीय लोगों को ‘exoticise’ करने की कोशिश दिखाई पड़ती है. exoticise मतलब किसी विदेशी वस्तु/व्यक्ति/परम्परा को एक अटेंशन की चीज़ की तरह इस्तेमाल करना.
एक थर्ड वर्ल्ड कंट्री के बारे में बनी हुई इमेज को भुनाते हुए शॉट्स जब रिश्ता ढूंढने वाले लोगों तक पहुंचते हैं, तो ये गरीबी गायब हो जाती है. क्योंकि सीमा तपारिया की फीस भरने की कूवत किसी आम मध्यवर्गीय परिवार की नहीं. इनके क्लाइंट्स बड़े-बड़े बिजनेसमैन हैं. करोड़ों के व्यापार करने वाले. महंगी गाड़ियों में चलने वाले. लेकिन इन गाड़ियों से बाहर की दुनिया दिखाना इस सीरीज का हिस्सा नहीं. उनके शॉट्स सिर्फ इसलिए मौजूद हैं ताकि देखने वालों को याद दिलाया जा सके कि वो भारत में हैं. यही नहीं. चेहरा पढ़ने वालों के पास जाना, कुंडली मिलवाना, ये सब एलिमेंट भी ऐसे लगते हैं जो एक वाइट ऑडियंस का कौतूहल जगाने के लिए रखे गए. आखिर में ये चेहरा पढ़ने और कुंडली मिलाने वालों की कही गई बात भी किसी काम नहीं आती. उनके दावे झूठे साबित होते हैं.

Emmy Awards के लिए Nominate  हुआ था Indian Matchmaking

इंडियन मैचमेकिंग को एमी अवार्ड्स में ‘आउटस्टैंडिंग अनस्ट्रक्चर्ड रियलिटी प्रोग्राम’ की केटेगरी में नॉमिनेट किया गया था. इसकी काफ़ी आलोचना हुई थी. आलोचना इस बात को लेकर कि भारत की पहचान को उसकी खामियों में समेट कर रख दिया गया. ये पूर्वाग्रह से ग्रसित पश्चिमी सोच को पुष्ट करता है. जो कहता है कि पश्चिम आधुनिकता की बुलेट ट्रेन पर सवार है. जबकि बाकी दुनिया अभी भी आदिमकाल में जी रही है. यहां पर मार्क ट्वेन की एक पंक्ति याद आती है.
Every Generalisation is not true, this too.
कहने का मतलब ये कि कुछ कैरेक्टर्स पूरे भारत का चाल-चरित्र नहीं तय कर सकते.

इंडियन मैचमेकिंग के पहले सीजन पर कई सवाल खड़े हुए थे.
मसलन, इस तरह का शो बनाने की ज़रूरत क्या थी?
क्या इसने भारतीयों को रिप्रजेंट करने में भारी ग़लती कर दी?
सबसे ज़्यादा सवाल और उत्सुकता इस बात को लेकर थी कि
क्या इस शो का दूसरा सीजन आएगा या आना चाहिए?

इसमें ताज़ा अपडेट ये है कि दूसरा सीजन आ रहा है. इसलिए, अब सवाल का मजमून बदल गया है. अब सवाल इस बात पर केंद्रित हो गया है कि क्या नया सीजन पुराने वाले से कोई सबक लेगा? ये देखने वाली बात होगी.

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